हस्तकला क्षेत्र मे महिला शिल्पियों की सम्मानजनक पहचान जरूरी

प्राचीन काल से हस्तशिल्प कला हमारे संस्कृति और हुनर की पहचान को बनाने का एक अहम्
हिस्सा रही है। हस्तकला की लोकप्रियता दूर दूर तक है चाहे वो विदेश हो या यहाँ अपने देश मे।
हस्तकला क्षेत्र में हस्तशिल्पियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, और उनका हस्तकला को आगे बढ़ाने
मे योगदान और उसके प्रति उनका समर्पण बहुत ही सराहनीय है। किसी भी कला मे उकेरी गयी
आकृति हो या उनमे मन मोह लेने वाले रंग, सभी मे कला और रचनात्मिक्ता है। मेरे अनुभव मे हम
जब भी किसी हस्तकला शिल्प की बात करते हैं तो हस्तशिल्प बनाने वाले पुरुष की परिकल्पना
अक्सर सामने आती हैं। वो इसलिए क्यूंकि सामान्य सोच यह है की कला को आगे बढ़ाने, उसमे
योग्यता, और उसे सफलता तक पहुँचाने का हुनर केवल पुरुषों के पास है। वाराणसी जिले मे जब मैंने
कास्ठकला शिल्पियों के साथ काम करना शुरू किया तो मुझे भी शुरुवात मे लगा की यह कला सिर्फ
पुरुषों के पास है परंतु जब उनके बीच पहुँच बनी तो पता चला की इस कला मे महिलाओं की भूमिका
उतनी ही है जितनी पुरुषों की। जब और गहराई से मैंने मुद्दे को समझने की कोशिश की तब पता
चला के हस्तकला क्षेत्र मे शिल्पी के रूप मे सिर्फ पुरुषों की पहचान है, जिसके कारण महिलाओ में
आत्मविश्वास की कमी दिखी और उनका नजरिया एक सहयोगी के रूप मे अपने प्रति बन गयी है।
हाँलाकी जब हम बात करते हैं की हमारे समाज मे महिलाओं को अपना स्थान और सम्मान दिया जा
रहा तो वही दूसरी और उनके कला से होने वाले पहचान को छुपाया जा रहा है।
मीना देवी एक महिला कारीगर है। उनकी उम्र लगभग 45 वर्ष है, वह अपने परिवार के साथ लकड़ी
की नक्काशी का भी काम करती है। मीना नक्काशी के काम में माहिर है परंतु मीना अपने किए गए
कला के विषय मे ज्यादा नहीं बता पाती थीं क्यूंकि उनका मानना था की वह तो सिर्फ सहयोग करती
हैं। मीना लगातार कई प्रशिक्षण व कार्यक्रम से जुड़ती गई। ये प्रशिक्षण और कार्यक्रम का मकसद
मीना जैसी महिलाओं के अंदर उनकी जो कला में माहिरि है वे उसको समझ सकें। वे समझ सकें कि
वे केवल सहयोगी नहीं बल्कि उनकी एक अहम् भूमिका है। इन प्रशिक्षणों में उनको तैयार किया गया
ताकी जो उनकी खोयी हुई पहचान है जिसको वे खुद नहीं मान या देख पा रही हैं उस पर वो दावा
करे और हस्तशिल्प जैसे पुरुष प्रधान जगह को हासिल कर सके। जिसका परिणाम यह हुआ की वे
अपने आपको एक महिला कारीगर के रूप मे अपने बनाए गए उत्पाद के मूल्यों और उसके महत्व के
विषय मे बात करने लगी है और अपने आप को केवल सहयोगी के रूप में नहीं देखती बल्कि ये
मानती है के वो एक हस्तशिल्पी है जिसकी इस कला में बहुत अहम् भूमिका है -इसको करने में
इसको आगे बढ़ाने में और वो भी इस क्षेत्र में सफलता पा सकती हैं। लेकिन हमने यह भी देखा है की
सिर्फ प्रशिक्षणों के माध्यम से महिला अपना पहचान नहीं बना पाती है ना ही उनमे आत्मविश्वास
बढ़ता है। इसके कई कारण है जैसे घर से निकलने मे बांधाएँ, घर के काम की जिम्मेदारी, बच्चे
संभालने की जिम्मेदारी, आदि। शुरुवाती समय मे वो पुरुष कारीगरों के सामने अपनी बात नहीं रख
पाती है, ना ही अपने घरवालों को समझाने मे कामयाब होती है। इसलिए कौशल निर्माण प्रशिक्षण के

साथ साथ आर्थिक स्वतंत्रता, कारीगरों के रूप में पहचान, निर्णय लेने पर उनका दृष्टिकोण बनाना
महत्वपूर्ण है।

महिला कारीगर की पहचान एक शिल्पी के रूप मे होना इसलिए जरूरी है क्यूंकि जब महिला
शिल्पियों की पहचान एक कारीगर के रूप मे होगी तो उनके आत्मविश्वास मे वृद्धि होगी, जब
आत्मविश्वास बढ़ेगा तो महिलाएं अपनी पहचान के साथ एक व्यवसायी के रूप मे आगे बढ़ेंगी,
जिससे उनकी कला और निखरेगी और उनकी आय मे वृद्धि होगी। जब महिला कारीगर के पास
अपनी पहचान के साथ उनके कला का उचित मूल्य मिलेगा तो उन्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी, वो
अपने जिंदगी के निर्णय स्वयं लेने मे सक्षम होगी, बुलंद आवाज मे अपनी बात रख पाएगी और तब
उन्हे समाज मे एक महिला कारीगर के रूप मे सम्मान जनक स्थान मिलेगा।

- नीलम पटेल, प्रगति पथ फाउंडेशन के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। प्रगति पथ फाउंडेशन
महिलाओं और लड़कियों का सम्मान करने वाले समाज को बढ़ावा देने के लिए 2011 में वाराणसी,
उत्तर प्रदेश में स्थापित की गई थी। नीलम ने बाल अधिकार को बढ़ावा देने वाले संगठनों और जेंडर
भेदभाव और महिलाओं के साथ हिंसा के मुद्दों पर काम करने वाले संगठनों के साथ काम किया है।
इस समृद्ध अनुभव के साथ साथ वाराणसी के बाहरी इलाके में स्थित एक गांव बडागाव में किए गए
व्यापक क्षेत्रीय कार्य का अनुभव महिलाओं के मुद्दों और वास्तविकताओं के बारे में उनकी समझ को
जमीन पर उतारने में मदद की।